
“आज मानवतावादी आकांक्षाओं और दुनिया की वास्तविकताओं के बीच एक दीवार खड़ी हो गई है। इस दीवार को गिरा-देने का समय आ गया है। एैसा करने के लिए, दुनिया के सभी मानवतावादियों को एकजुट होना होगा।”
मानवतावादी इस सदी के महिलाएं और पुरुष हैं। वे पूरे इतिहास में मानवतावाद की उपलब्धियों को पहचानते हैं, और कई संस्कृतियों के योगदान में प्रेरणा पाते हैं, न केवल उनसे जो आज केंद्र में हैं। वे, वो पुरुष और महिलाएं भी हैं जो पहचानते हैं कि यह समय इस शताब्दी और यह सहस्राब्दी का अन्त नज़दीक है, और उनकी परियोजना एक नई दुनिया बनाने की है। मानवतावादियों को लगता है कि उनका इतिहास बहुत लंबा है और उनका भविष्य और भी लंबा होगा। आजा़दी और सामाजिक प्रगति में विश्वास रखने वाले आशावादी के रूप में, वे आज के संकट को दूर करने का प्रयास करते हुए, भविष्य की ओर टकटकी लगाए हुए हैं। मानवतावादी वैश्विक हैं, एक विश्वव्यापी मानव राष्ट्र के इच्छुक हैं। दुनिया को एक मानते हुये, मानवतावादी अपने आसपास के वातावरण में कार्यरत हैं। मानवतावादी एक समान दुनिया नहीं, बल्कि अनेकता की दुनिया चाहते हैं, जैसे कि जातीयता, भाषाओं और रीति–रिवाजों की विविधता; स्थानीय और क्षेत्रीय स्वायत्तता की विविधता; विचारों और आकांक्षाओं की विविधता; विश्वासों की विविधता, चाहे नास्तिक हो या आस्तिक, व्यवसायों की और रचनात्मकता की विविधता आदि।
मानवतावादी विचारधारा के लोग स्वामित्व की चाह नहीं रखते, अथवा आधिकारिक प्रबलता का शौक उन्हें नहीं है। न ही वे खुद को किसी और के प्रतिनिधि या मालिक के रूप में देखते हैं। मानवतावादी न तो एक केंद्रीकृत राज्य चाहते हैं और न ही समानांतर राज्य। इनके विकल्प के रूप में, मानवतावादी, न तो पुलिस राज्य चाहते हैं और न ही सशस्त्र गिरोहों का राज्य।
आज मानवतावादी आकांक्षाओं और दुनिया की वास्तविकताओं के बीच एक दीवार खड़ी हो गई है। इस दीवार को गिरा–देने का समय आ गया है। एैसा करने के लिए, दुनिया के सभी मानवतावादियों को एकजुट होना होगा।
“मानवतावादियों का यह कहना गलत नहीं होगा, कि दुनिया अब पूरे विश्च के विशाल क्षेत्रों में फैली समस्याओं, जैसे कि रोजगार, भोजन, स्वास्थ्य देखभाल, आवास, और शिक्षा आदि का तुरन्त हल निकालने के लिये तकनीकी रूप से सक्षम है।”
१. वैश्विक पूंजी (ग्लोबल कैपिटल)
आज के समय में एक “विश्वव्यापी सत्य” बन गया है: पैसा ही सब कुछ है। पैसा, सरकार है, कानून है, सत्ता है। धन, मूल रूप से साधन मात्र है, लेकिन इससे अधिक यह कला है, यह दर्शन है, यह धर्म है। धन के बिना कुछ भी नहीं किया जाता है, धन के बिना कुछ भी संभव नहीं है। पैसे के बिना कोई व्यक्तिगत संबंध नहीं हैं, बिना पैसे के कोई अपनापन नहीं है। यहां तक कि शांतिपूर्ण एकांत भी पैसे पर निर्भर करता है।
इस “विश्वव्यापी सत्य” के साथ हमारा संबंध विरोधाभासी है। ज्यादातर लोगों को यह माहौल पसंद नहीं है। और इसलिए हम खुद को पैसे के अत्याचार के अधीन पाते हैं – एक अत्याचार जो कि अमूर्त नहीं है, क्योंकि इसके लिए नाम, प्रतिनिधि, एजेंट और अच्छी तरह से स्थापित प्रक्रियाएं हैं।
आज का सवाल सामंती अर्थव्यवस्था, राष्ट्रीय उद्योग या क्षेत्रीय हित नहीं हैं। आज, सवाल यह है कि बची–खुची आर्थिक व्यवस्था किस तरह अंतरराष्ट्रीय वित्त–पूंजी के नए हुक्मरानों को झेलेगी। जिस प्रकार दुनिया भर में पूंजी कुछ हाथों में केंद्रित होती जा रही है, उससे कुछ भी नहीं बचेगा, यहाँ तक कि राष्ट्रों का अस्तित्व भी इसी से उधार और ऋण पर निर्भर करने लगेगा। सभी को निवेश के लिए भीख मांगनी पडेगी और गारंटी देनी होगी कि बैंकिंग प्रणाली को ही फैसले में अंतिम अधिकार होगा। समय तेजी से आ रहा है जब कंपनियों समेत, हर ग्रामीण और शहरी, सब कुछ बैंकिंग प्रणाली की निर्विवाद संपत्ति होगी। वैश्विक पूंजी आधारित समानांतर राज्य के कारण, तबाही का समय आ रहा है, एक ऐसा समय जिसमें पुराना सब धवस्त हो जाएगा।
इस समय, एकजुटता के पारंपरिक बंधन जो लोगों को एक साथ जोड़ते थे, तेजी से टूट रहे हैं। हम सामाजिक ताने–बाने का विघटन होता देख रहे हैं, और देख रहे हैं कि किस तरह वैश्विक पूंजी लाखों अलग–थलग पड़े जनसमुदाय, साँझा दुख होने के बावजूद, उदासीन जीवन काट रहे हैं। बढ़़ी पूंजी, उत्पादन के साधनों पर अपने नियंत्रण के माध्यम से हमारी निष्पक्षता पर हावी हो जाती है, और, संचार और सूचना के साधनों के नियंत्रण के माध्यम से, हमारी आत्मचेतना पर भी हावी हो जाती है।
एैसी स्तिथि मे, पूंजी नियंत्रित करने वालों के पास हमारे मानव संसाधन और हमारा सब कुछ नियंत्रन करने की शक्ति और तकनीक आ जाती है। वे अपूरणीय प्राकृतिक संसाधनों का बेजा हनन करते हैं और लोगों के साथ लगातार गिरते स्तर का व्यवहार करते हैं। और जिस तरह उन्होंने कंपनियों, उद्योगों और यहाँ तक की सरकारों से, सब कुछ लूट लिया है, विज्ञान को भी इसके अर्थ से वंचित करके इसका इस्तेमाल केवल गरीबी, विनाश और बेरोजगारी उत्पन्न करने वाली तकनीक के रूप में कर रहे हैं।
मानवतावादियों का यह कहना गलत नहीं होगा, कि दुनिया अब पूरे विश्च के विशाल क्षेत्रों में फैली समस्याओं, जैसे कि रोजगार, भोजन, स्वास्थ्य देखभाल, आवास, और शिक्षा आदि का तुरन्त हल निकालने के लिये तकनीकी रूप से सक्षम है। केवल वैश्विक पूंजी की राक्षसी सट्टेबाजारी के कारण ही इस संभावना को कार्यान्वित नहीं किया जा रहा है।
एक और बढ़़ी पूंजी ने बाजार अर्थव्यवस्थाओं को समाप्त कर दिया है, और अपने द्वारा उत्पादित अराजकता को स्वीकार करने के लिए समाज को अनुशासित करना शुरू कर दिया है। फिर भी इस बढ़ती अतार्किकता की स्तिथी में, इसके द्वंद्वात्मक विरोध में तर्क की आवाज़ें उठाती नहीं दिखती। बल्कि, यह नस्लवाद, कट्टरवाद और कट्टरता का घिनौना रूप है जो बढ़ता जा रहा है। और अगर लोग सामूहिक और पूरे क्षेत्रिय स्तर पर इस नई अतार्किकता से प्रेरित होते चले गये, तो प्रगतिशील ताकतों द्वारा रचनात्मक कार्रवाई के लिए जगह दिन–ब–दिन कम होती जाएगी।
दूसरी ओर, लाखों कामकाजी लोग पहले ही यह जान चुके हैं कि केंद्रीकृत राज्य, पूंजीवादी लोकतंत्र की तरह ही केवल एक दिखावा–धोखा है। और जिस तरह कामकाजी लोग भ्रष्ट मज़दूर–संघ अधिकारियों के खिलाफ खड़े हो रहे हैं, उसी तरह बङी संख्या में नागरिक उनकी सरकारों और राजनीतिक दलों पर सवाल उठा रहे हैं। यह रचनात्मक घटनायें सहज–विरोध बनकर स्थिर होकर बिखर न जायें, इसलिये यह आवश्यक है कि इन्हें एक रचनात्मक मार्गदर्शन दिया जाये। कुछ नया होने के लिए, समुदाय के दिल में, हमारी अर्थव्यवस्था के मूल कारकों के बारे में एक संवाद शुरू होना चाहिए।
मानवतावादियों के लिए, श्रम और पूंजी आर्थिक उत्पादन के मुख्य कारक हैं, जबकि सट्टेबाजारी और सूदखोरी असंगत हैं। वर्तमान आर्थिक परिस्थितियों में, मानवतावादी इन कारकों के बीच मौजूद बेतुके संबंधों को पूरी तरह से बदलने के लिए संघर्षरत हैं। अब तक हमें बताया गया है कि पूंजी को लाभ मिलता है और श्रमिकों को मजदूरी, और इस असमानता को पूंजी–निवेश के “जोखिम” द्वारा हमेशा उचित ठहराया जाता है – जैसे कि, आज के बेरोजगारी और आर्थिक संकट के माहौल में, कामकाजी लोग अपने वर्तमान और अपने भविष्य दोनों के लिए अनिश्चितताओं के बीच जोखिम न उठाते हों।
इस सारे माहोल में, प्रत्येक कंपनी के संचालन में प्रबंधन और निर्णय का तरीका एक और कारक है। उद्यम की कमाई को पुनर्निवेश, विस्तार या विविधीकरण के लिए उपयोग न करके, अघिक से अधिक वित्तीय सट्टेबाजारी में लगाया जाता है और मुनाफे का उपयोग काम के नए स्रोतों को बनाने के लिए नहीं किया जाता है।
मेहनतकश लोगों का संघर्ष पूंजी से अधिकतम उत्पादक फायदे के लिये होना चाहिये। लेकिन ऐसा तब तक नहीं हो सकता जब तक कि प्रबंधन और निदेशक पदों को सहकारी रूप से साझा नहीं किया जाता।
इसके अलावा, और कैसे संभव होगा कि बढ़़े पैमाने पर छंटनी, व्यापार, और यहां तक कि पूरे उद्योगों को बंद होने के आसार से बचाया जा सके ? सबसे बढ़़ा नुकसान पूंजी की कमी (अंडर–इन्वेस्टमेंट), फर्जी दिवालिया, अनचाहे कर्ज और पूंजी–पलायन से होता है – न कि बढ़ी हुई उत्पादकता के जरिए होने वाले मुनाफे से। और कुछ लोग, जो उन्नीसवीं सदी की विचारधारा से प्रेरित रहते हुए, अब भी, श्रमिकों को उत्पादन के साधनों पर कब्जा करने के लिए कह रहे हैं, तो उन्हें वास्तविक समाजवाद की हाल की विफलताओं पर गंभीरता से विचार करना होगा।
इस तर्क से कि पूंजी और मेहनत को एक जैसा महत्व दिया जाये, अधिक मुनाफे वाले क्षेत्रों की और पूंजी–पलायन की गति और भी बढ जायेगी। यहाँ य़ह बताना ज़रूरी है कि यह सब अब अधिक समय तक नहीं चल सकता है क्योंकि वर्तमान आर्थिक प्रणाली की तर्कहीनता दुनिया भर में फैल रहे संकट के चरम पर पहुँच रही है।
इसके अलावा, यह तर्क, एक कट्टरपंथी अनैतिकता को फैलाने के अलावा, उस ऐतिहासिक प्रक्रिया की अनदेखी करता है जिसमें पूंजी लगातार बैंकिंग प्रणाली में स्थानांतरित हो रही है। नतीजतन, नियोक्ताओं और व्यापारियों को कर्मचारियों जैसी स्थिति में ङालकर उनकी निर्णय लेने की शक्ति को कमान की एक लंबी श्रृंखला से छीना जा रहा है, और उसमें वे केवल स्वायत्तता का झूठा दिखावा ही बनाए रखते हैं। और जैसे–जैसे मंदी गहराती जा रही है, ये कारोबारी लोग इन बिंदुओं पर अधिक गंभीरता से विचार करने लगेंगे।
मानवतावादियों को न केवल रोजगार के मुद्दों पर कार्य करने की आवश्यकता महसूस होती है, बल्कि राजनीतिक रूप से राज्य को केवल अंतरराष्ट्रीय पूंजी का एक साधन बनने से रोकने के लिए, उत्पादन के कारकों के बीच एक न्यायपूर्ण संबंध सुनिश्चित करने के लिए, और समाज की छीनी हुयी स्वायत्तता को बहाल करने की आवश्यकता होती है।
“वास्तविक लोकतंत्र में, सभी अल्पसंख्यकों को, प्रतिनिधित्व के उनके अधिकार के साथ-साथ, उनके पूर्ण समावेश, भागीदारी और विकास के अभ्यास के लिए आवश्यक सभी उपायों के अनुरूप, सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए।”
२ वास्तविक लोकतंत्र बनाम औपचारिक लोकतंत्र
लोकतंत्र की इमारत खंङहर हो चुकी है क्योंकि इसकी नींव – संवैधानिक शक्तियों का विभाजन, प्रतिनिधित्व आधारित सरकार, और अल्पसंख्यकों का सम्मान – सब मिट गया है।
शक्तियों का सैद्धांतिक विभाजन कोरी बकवास बन गया है। यहां तक कि विभिन्न शक्तियों की उत्पत्ति और संरचना के आसपास की प्रथाओं पर सरसरी नज़र ङालने पर उनके अंतरंग संबंधों का पता चलता है जो उन्हें एक–दूसरे से जोड़ते हैं। और चीजें भिन्न हो ही नहीं सकती क्योंकि वे सभी एक ही व्यवस्था का हिस्सा बन चुके हैं। एक के बाद राष्ट्र में हम एक शाखा को दूसरों पर वर्चस्व बनाते देखते हैं, शक्तियों का छीना जाना, बढ़ते भ्रष्टाचार और अनियमितताअों का सामने आना – यह सब प्रत्येक देश की बदलती वैश्विक आर्थिक और राजनीतिक स्थिति के अनुरूप हो रहा है।
जहां तक प्रतिनिधिक सरकार का रूप में, सार्वभौमिक मताधिकार का हक पाने के बाद से लोगों का मानना है कि, इसमें केवल एक ही चरण है, कि उन्हें केवल अपने प्रतिनिधि का चुनाव करना है और उनका प्रतिनिधि प्राप्त किए गए जनादेश का वहन करेगा। लेकिन समय बीतने के साथ, लोग स्पष्ट रूप से यह देख रहे हैं कि वास्तव में दो चरण हैं: पहला जिसमें बहुत से लोग कुछ का चुनाव करते हैं, और दूसरा, जिसमें वो कुछ लोग जो कि विदेशी हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जनादेश का विश्वासघात करते हैं। और यह भ्रष्टाचार राजनीतिक दलों के भीतर आ गया है, जो कि अब मुट्ठी भर एेसे नेताओं के कब्जे मे़ हैं जिनका जमीनी आधार नहीं है। पार्टी मशीनरी के माध्यम से, शक्तिशाली लोग उम्मीदवारों को वित्तिय चंदा देकर, अपनी मनमर्जी की नीतियों का पालन करवाते हैं। यह वस्तुस्थिति समकालीन प्रतिनिधिक लोकतंत्र की अवधारणा में उसके कार्यान्वयन में गहरा संकट दर्षाती है।
मानवतावादी प्रतिनिधिक सरकार के स्वरूप को बदलने के लिए संघर्षरत हैं, जहां कि जनमत संग्रह, राय–मशविरा और उम्मीदवारों के प्रत्यक्ष चुनाव के माध्यम से लोगों के सीधे परामर्श देने के अधिकार को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाये। कई देशों में अभी भी ऐसे कानून हैं जो स्वतंत्र उम्मीदवारों को राजनीतिक दलों के अधीन कर देते हैं, या राजनीतिक पैंतरेबाजी और वित्तीय प्रतिबंधों के कारण, लोगों की इच्छा की स्वतंत्र अभिव्यक्ति वाले वो स्वतंत्र उम्मीदवार, चुनाव प्रक्रिया मे़ं भाग ही नहीं ले सकते।
कोई भी संविधान या कानून जो प्रत्येक नागरिक को चुनाव करने और चुने जाने की पूरी संभावना को रोकता है, वास्तव में, लोकतंत्र का मज़ाक बनाता है, लोकतंत्र जो कि इस तरह के सभी कानूनी प्रतिबंधों से ऊपर का मामला है। और अवसर की सही समानता होने के लिए, चुनाव के दौरान समाचार मीडिया को लोगों की सेवा में रखा जाना चाहिए, जिसमें सभी उम्मीदवारों को लोगों के साथ संवाद करने का समान अवसर प्रदान किया जाये।
निर्वाचित प्रतिनिधियों के नियमित रूप से अपने चुनावी–वादाखिलाफी करने की प्रवृत्तिी से निजात पाने के लिये, राजनीतिक जिम्मेदारी के कानूनों को लागू करने की भी आवश्यकता है, जिससे एैसे प्रतिनिधियों को निन्दा का, शक्तियों के हनन् का, चुनाव एवं राजनीतिक प्रतिरक्षा रद्द होने का सामना करना पडे। वर्तमान कानून में, चुनावी–वादों को पूरा नहीं करने वाली पार्टियां या व्यक्तियों को निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं के साथ विश्वासघात करने से रोकने का कोई प्रभावी रास्ता नहीं है, हालांकि वे भविष्य के चुनावों में हार का जोखिम रखते हैं।
महत्वपूर्ण मुद्दों पर लोगों से सीधे परामर्श करना, हर दिन प्रौद्योगिकी के उपयोग के माध्यम से आसान हो रहा है।इसका मतलब यह नहीं है कि केवल आसानी से तोडे–मरोडे जनमत सर्वेक्षणों, राय–मशविरों और सर्वेक्षणों को अधिक महत्व दिया जाए। इसका मतलब है आज की उन्नत कम्प्यूट्रीकरण एवं संचार प्रौद्योगिकी के माध्यम से वास्तविक भागीदारी और प्रत्यक्ष मतदान की सुविधा प्रदान करना है।
वास्तविक लोकतंत्र में, सभी अल्पसंख्यकों को, प्रतिनिधित्व के उनके अधिकार के साथ–साथ, उनके पूर्ण समावेश, भागीदारी और विकास के अभ्यास के लिए आवश्यक सभी उपायों के अनुरूप, सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए।
आज, दुनिया भर में अल्पसंख्यक, उनको विदेशी समझने और भेदभाव की प्रवृत्तिीयों के कारण, मान्यता के लिए पीड़ा भरी पुकार कर रहे हैं। सभी मानवतावादियों की ज़िम्मेदारी है कि वो इस मुद्दे को सामने लायें, ताकि इस तरह के, साफ–तौर या गुप्त नव–फासीवाद पर काबू पाने के लिए संघर्ष किया जाये। संक्षेप में, अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए संघर्ष करना सभी मनुष्यों के अधिकारों के लिए संघर्ष करना है।
केंद्रीकृत राज्य बढ़़ी पूंजी के चेतनाशून्य साधन–मात्र बन गये हैं। उनकी दादागिरी के कारण, विविध आबादी वाले कई देशों के विविधतापूर्ण आबादी वाले पूरे प्रांत और क्षेत्र, एक ही तरह के भेदभाव का शिकार हैं। इसे खत्म करने के लिये, एेसे संघीय स्वरूप अपनाने होंगे, जिसके माध्यम से वास्तविक राजनीतिक शक्ति इन ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संस्थाओं के हाथों में लौट सके।
कुल मिलाकर, पूंजी एवं श्रम, वास्तविक लोकतंत्र और राज्यतंत्र के विकेंद्रीकरण के मुद्दों को सर्वोच्च प्राथमिकता देना, एक नए प्रकार के समाज बनाने की दिशा में राजनीतिक संघर्ष है – एक लचीला समाज जो अब एक अमानवीय प्रणाली पर उनकी निर्भरता से प्रत्येक दिन अधिक घुट रहे लोगों की बदलती जरूरतों के साथ सामंजस्य से चले।
“हर बार जब व्यक्ति या मानव समूह हिंसक रूप से खुद को दूसरों पर थोपते हैं, वे अपने पीड़ितों के साथ “प्राकृतिक” वस्तुओं जैसा दुरव्यवहार करते हुये, इतिहास की गति अवरुद्ध करते हैं।”
३ मानवतावादी रूख
मानवतावादी गतिविधियाँ, ईश्वर, प्रकृति, समाज या इतिहास के बारे में काल्पनिक सिद्धांतों से प्रेरित नहीं होतीं। बल्कि, यह जीवन की जरूरतों के साथ शुरू होती हैं, जिसकी तात्विकता दर्द से छुटकारा और आनंद की प्राप्ति हैं। और, फिर भी मानव जीवन अतीत की अनुभूति और वर्तमान स्थिति को सुधारने के इरादे के आधार पर भविष्य की जरूरतों को समझने की अतिरिक्त जरूरत पर जोर देता है।
मानव अनुभव केवल प्राकृतिक शारीरिक संचय या चयन का उत्पाद नहीं है, जैसा कि सभी प्रजातियों में होता है। यह सामाजिक अनुभव और व्यक्तिगत अनुभव है जो वर्तमान में दर्द पर काबू पाने और भविष्य में इसे टालने के लिए निर्देशित है। मानव कार्य, समाज की प्रस्तुतियों में संचित होता है, मौजूदा या प्राकृतिक परिस्थितियों, यहां तक कि स्वयं मानव शरीर के सुधार के लिए एक सतत संघर्ष में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में परिवर्तित हो जाता है। इसलिए मानव को ऐतिहासिक प्राणी के रूप में परिभाषित किया जाना चाहिए, जिसके सामाजिक व्यवहार का तरीका दुनिया और अपनी प्रकृति दोनों को बदलने में सक्षम है।
हर बार जब व्यक्ति या मानव समूह हिंसक रूप से खुद को दूसरों पर थोपते हैं, वे अपने पीड़ितों के साथ “प्राकृतिक” वस्तुओं जैसा दुरव्यवहार करते हुये, इतिहास की गति अवरुद्ध करते हैं। प्रकृति के इरादे नहीं होते। दूसरों की स्वतंत्रता और इरादों को नकारना, उन्हें इरादा–रहित प्राकृतिक वस्तुओं में बदलना है, वस्तुओं की तरह उपयोग करने के बराबर है।
धीमी गति से होती मानवीय प्रगति को कुछ मनुष्यों द्वारा दूसरों के प्रति हिंसक पाशविक व्यवहार समाप्त करते हुये, अब प्रकृति और समाज दोनों को बदलने की जरूरत है। जब ऐसा होगा, तो हम शैशवकाल से पूरी तरह से मानवीय इतिहास में परिवरतित हो जाएंगे। इस अन्तराल में, हम केवल मनुष्य को पूरी तरह से मुक्त एवं परिपूर्ण मानते हुये एक शुरूआत कर सकते हैं। इसलिए, मानवतावादी घोषणा करते हैं, “मनुष्य से बढकर कुछ भी नहीं, और कोई भी मनुष्य किसी अन्य से नीचा नहीं“।
यदि ईश्वर, राज्य, धन, या किसी अन्य इकाई को केंद्रीय मूल्य के रूप में रखा जाता है, तो यह मानव को अधीनस्थ करता है और अन्य मनुष्यों के नियंत्रण या बलिदान के लिए स्थिति बनाता है। मानवतावादियों के लिये यह बहुत स्पष्ट बात है। नास्तिक हों या धार्मिक, मानवतावादी अपनी नास्तिकता या अपने विश्वास के दृष्टिकोण से दुनिया और उनके कार्यों को नहीं देखते। वे इंसान और इंसान की तात्कालिक जरूरतों से शुरूआत करते हैं। और अगर, एक बेहतर दुनिया के लिए उनके संघर्षरत रहते, प्रगतिशील दिशा में इतिहास को आगे बढ़ाते हुये किसी इरादे की खोज करते हैं, वे इस विश्वास या इस खोज को इंसान की सेवा में लगा देते हैं।
मानवतावादी इस मूलभूत समस्या के समाधान मे़ं रुचि रखते हैं: यह जानना कि जीने की आव्शयकता क्यों और किन परिस्तिथियों में है।
हिंसा के सभी रूप – शारीरिक, आर्थिक, नस्लीय, धार्मिक, लैन्गिक, वैचारिक, और अन्य – जिनका उपयोग मानव प्रगति को अवरुद्ध करने के लिए किया गया है, मानवतावादियों के लिये घृणास्पद हैं। मानवतावादियों के लिए, हर प्रकार का भेदभाव, चाहे वह सूक्ष्म हो या अति, भर्त्सनाा योग्य है।
मानवतावादी हिंसक नहीं हैं, लेकिन वे कायर भी नहीं हैं, और क्योंकि उनके कार्य उद्देश्यपूर्ण होते हैं, वे हिंसा का सामना करने से डरते नहीं हैं। मानवतावादी अपने व्यक्तिगत जीवन को समाज के जीवन से जोड़ते हैं। वे, झूठे द्वंद्वों के अनुसार अपने स्वयं के जीवन को अपने आस–पास के लोगों के जीवन से अलग नहीं देखते, और इसी में उनका सामंजस्य निहित है।
ये मुद्दे मानवतावाद और मानवतावाद–विरोधियों के बीच एक स्पष्ट विभाजन रेखा को चिह्नित करते हैं: मानवतावाद प्राथमिक्ता देता है – बढ़़ी पूंजी के बजाय श्रम को, औपचारिक लोकतंत्र के बजाय वास्तविक लोकतंत्र को, केंद्रीयकरण के बजाय विकेंद्रीकरण को, भेदभाव के बजाय भेदभाव–विरोध को, उत्पीङन से पहले स्वतंत्रता को, और आत्मघातिता, सहापराधिता, एवं विवेकहीनता के बजाय सार्थक जीवान को। क्योंकि मानवतावाद चुनने की स्वतंत्रता पर आधारित है, यह वर्तमान समय की एकमात्र वैध नैतिकता प्रदान करता है। क्योंकि मानवतावाद इरादे और स्वतंत्रता में विश्वास करता है, यह गलती और बुरे विश्वास के बीच, एक गलती करने वाले और एक देशद्रोही के बीच अंतर करता है।
“जैसे-जैसे सामाजिक-सन्कट बढता है, छात्रों और शिक्षकों की भारी संख्या, जो पहले से ही अन्याय के प्रति संवेदनशील हैं, बदलाव की अपनी इच्छाशक्ति के प्रति जागरूक हो रहे हैं।”
४ सुशुक्त मानवतावाद से जागरूक मानवतावाद के लिए
मानवतावाद को, समाज के जमीनी स्तर पर, जहां लोग काम करते हैं और जहां वे रहते हैं, वहां हो रहे अलग–थलग पङते सरल विरोधों को, आर्थिक संरचनाओं को बदलने की दिशा में, जागरूक चेतना का रूप देना होगा।
श्रमिक संघों और प्रगतिशील राजनीतिक दलों के उत्साही कार्यकर्ताओं का संघर्ष अधिक सुसंगत हो जाएगा, जब वे नेतृत्व परिवर्तन के माध्यम से उनमें अपने संगठनों को एक नई नीति–देशा देंगे, जो छोटी–छोटी शिकायतों के बजाय, मानवतावाद के मूल प्रस्तावों को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं।
जैसे–जैसे सामाजिक–सन्कट बढता है, छात्रों और शिक्षकों की भारी संख्या, जो पहले से ही अन्याय के प्रति संवेदनशील हैं, बदलाव की अपनी इच्छाशक्ति के प्रति जागरूक हो रहे हैं। और निश्चित रूप से, इतनी दैनिक त्रासदी के संपर्क में आने वाले मीङिया–कर्मी आज मानवतावादी दिशा में कार्य करने के लिए अनुकूल स्थिति में हैं, ठीक इसी तरह जैसे कि वे बुद्धिजीवी, जिनकी रचनाएँ इस अमानवीय प्रणाली द्वारा प्रवर्तित मानकों के विरोध मे़ हैं।
इतनी मानवीय पीड़ा के सामने, बेदखल और भेदभाव झेलने वालों की निःस्वार्थ भाव से मदद करने के लिये, कई पदों और संगठनों के लोग, आज लोगों को प्रोत्साहित कर रहे हैं। समाजसेवी, स्वयंसेवक समूह, और बढ़़ी संख्या में लोग, कई मोकों पर सकारात्मक योगदान देने के लिए आगे आ जाते हैं। निस्संदेह उनका एक योगदान इन अत्याचारों की भर्त्सनाा फैलाना भी है। परन्तु, ऐसे समूह, इन समस्याओं को जन्म देने वाली अंतर्निहित संरचनाओं के परिवर्तन पर अपने ध्यान केंद्रित नहीं करते। उनका दृष्टिकोण जागरूक मानवतावाद की तुलना में मानववाद के अधिक निकट होता है, हालांकि इन प्रयासों के बीच कई कर्तव्यनिष्ठ विरोध और कार्य हैं जिन्हें बढ़ाया और गहरा किया जा सकता है।
“बेईमानी और बदनियति की पराकाषठा देखिये कि कुछ प्रतिपादक समय-समय पर खुद को “मानवतावाद” के प्रतिनिधि के रूप में पेश करते हैं।”
5. मानवतावादी विरोधी खेमा
जैसे–जैसे लोगों का बढ़़ी पूंजी की ताकतों से घुटना जारी है, लोगों के असंतोष का फायदा उठाकर और विभिन्न मुद्दों पर ध्यान बंटाकर, असंगत प्रस्ताव उठते और कानूनी जामा पा जाते हैं। इस तरह के नव–फासीवाद की जड़ में मानवीय मूल्यों के प्रति घौर घृणा है। इसी तरह, कुछ निश्चित पर्यावरणीय धाराएँ हैं जो प्रकृति को मनुष्य की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण मानती हैं। अब वे यह प्रचार नहीं करते हैं कि एक पर्यावरणीय आपदा एक आपदा है क्योंकि यह मानवता को खतरे में डालती है – इसके बजाय उनके लिये समस्या केवल यह है कि मानव ने प्रकृति को नुकसान पहुंचाया है।
इन सिद्धांतों में से कुछ के अनुसार, मानव किसी तरह से दूषित है, और वह प्रकृति को दूषित करता है।
वे मानते हैं कि, बेहतर होता कि दवाई कभी भी बीमारी से लड़ने या मानव जीवन को लम्बा खींचने में सफल नहीं होती। कुछ लोग पागलों की तरह चिल्लाते हैं – पृथ्वी पहले! , नाजी़ नारे की तरह। यह पहला कदम है, जिसके आगे, शुरूआत होती है – ऊन संस्कृतियों के खिलाफ भेदभाव करने की, जिन्हें दूषित या “अशुद्ध” विदेशी माना जाता है। इन वैचारिक धाराओं को मानवतावादी विरोधी माना जा सकता है क्योंकि उनकी जङों में, इन्सान के प्रति घृणा है, एवं आज प्रचालित शून्यवाद और आत्मघाती प्रवृत्तिी के चलते, उनके उपदेशक इस नफरत को दर्शाते हैं।
समाज का एक खुद को अनुभवी माननेवाला महत्वपूर्ण तबका, जो खुद को पर्यावरणविद् मानता हैं, क्योंकि वे उन गम्भीर दुरूपयोगों को समझते हैं जिन्हें पर्यावरणवाद उजागर करता है और उनकी निंदा करता है। और अगर यह पर्यावरणवाद अपने चरित्र में मानवतावादी हो जाता है, तो यह उन लोगों के खिलाफ संघर्ष को निर्देशित करेगा जो वास्तव में तबाही पैदा कर रहे हैं – यानि, सैन्य–औद्योगिक परिसर से जुङी, बढ़़ी पूंजी और विनाशकारी उद्योग व व्यवसायों की श्रृंखला।सील मछली के बारे में चिंता करने से पहले, वे दुनिया के कई हिस्सों में फैली भूख, भीड़–भाड़, शिशु मृत्यु दर, बीमारी, और यहां तक कि आवास और स्वच्छता के न्यूनतम मानकों की कमी के बारे चिंतित होंगे। वे, इस दुनियां में, जो कि तकनीकी रूप से काफी उन्नत होने के बावजूद अभी भी अधिक अतार्किक विकास के नाम पर गंभीर पर्यावरण असंतुलन पैदा करती है, फैलते हुये बेरोजगारी, शोषण, नस्लवाद, भेदभाव और असहिष्णुता पर ध्यान केंद्रित करेंगे।
कहीं दूर देखने की जरूरत नहीं है कि दक्षिणपंथी किस तरह मानवतावाद–विरोधी खेमें के राजनीतिक उपकरण के रूप में काम करते हैं। बेईमानी और बदनियति की पराकाषठा देखिये कि कुछ प्रतिपादक समय–समय पर खुद को “मानवतावाद” के प्रतिनिधि के रूप में पेश करते हैं। उदाहरण के लिए, उन चालाक मौलवियों को देखिये, जो एक हास्यास्पद “धर्मनिरपेक्ष मानवतावाद” के आधार पर सिद्धांत बनाने का दावा करते हैं। ये लोग, जिन्होंने धार्मिक युद्धों और धर्म–न्यायाधिकरणों का आविष्कार किया, जिन्होंने पश्चिमी मानवतावाद के बहुत संस्थापकों को मौत के घाट उतार दिया, अब वे अपने पीड़ितों के गुणों को ही उचित ठहराने का प्रयास कर रहे हैं। हाल ही में, वे उन ऐतिहासिक मानवतावादियों की “त्रुटियों को क्षमा करने” के रूप में इतने आगे बढ़ गए हैं, कि बेशर्म से शब्दों की चोरी करके, यह मानवतावाद के दुशमन, खुद को “मानवतावादी” शब्द के साथी के रूप में दर्शाने की कोशिश करते दिखते हैं।
निश्चित रूप से मानवतावाद–विरोधी खेमें के संसाधनों, उपकरणों, रूपों और अभिव्यक्तियों की पूरी श्रृंखला को सूचीबद्ध करना असंभव होगा। लेकिन उनके कुछ अधिक–भ्रामक क्रियाकलापो़ पर प्रकाश डालने से सन्देह न करने वाले मानवतावादियों को यह सब समझने मे़ं मदद मिलेगी। साथ ही उन्हें भी जो अपने विचारों और उनके सामाजिक व्यवहार के महत्व पर फिर से विचार करते हुये अपने को मानवतावादी मान रहे हैं।
“इस आंदोलन का उद्देश्य, वर्तमान सामाजिक परिवर्तन को उन्मुख करते हुए, आबादी के व्यापक स्तर को प्रभावित करने में सक्षम इकाइयो़ के एक संघ को बढ़ावा देना है।”
६ मानवतावादी मोर्चे
एक व्यापक आधार वाला सामाजिक आंदोलन बनने के इरादे से, मानवतावाद की महत्वपूर्ण शक्ति, कार्यस्थल, पड़ोस, श्रमिक–संघों और सामाजिक, राजनीतिक, पर्यावरण और सांस्कृतिक संगठनों में मानवतावादी मोर्चों के स्वरूप में गतिविधियों का आयोजन करने में है।
इस तरह की सामूहिक कार्रवाई, विभिन्न प्रगतिशील ताकतों, समूहों और व्यक्तियों के लिए, अपनी स्वयं की पहचान या विशेषताओं को खोए बिना अधिक से अधिक उपस्थिति और प्रभाव डालना संभव बनाती है। इस आंदोलन का उद्देश्य, वर्तमान सामाजिक परिवर्तन को उन्मुख करते हुए, आबादी के व्यापक स्तर को प्रभावित करने में सक्षम इकाइयो़ के एक संघ को बढ़ावा देना है।
मानवतावादी न तो घोषणाओं के प्रति सहज हैं और न ही अधिक रोमांटिक युगों से संबंधित हैं, और इस अर्थ में वे अपने प्रस्तावों को सामाजिक चेतना की सबसे उन्नत अभिव्यक्ति के रूप में नहीं देखते और न ही अपने संगठन के बारे में निर्विवाद रूप से सोचते हैं। न ही वे बहुमत का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं। मानवतावादी बस अपने सर्वश्रेष्ठ निर्णय के अनुसार कार्य करते हैं, उन परिवर्तनों पर ध्यान केंद्रित करते हैं जिन्हें वे आज के समयानुसार सबसे उपयुक्त और संभव मानते हैं।